आज बहुत कुछ कहने के लिए बैठा हूँ बहुत दिनों के बाद। अब सोचता हूँ की कुछ कहने के लिए बचा ही नहीं। लेकिन अभी नहीं कहा ना तो कभी नहीं कह पाऊँगा। शायद याद ही न रहे, और अगर रहा भी तो शायद इस तरह न रहे जैसा अभी है। कुछ तो है जो इस जिंदगी में मैं समझ नहीं पा रहा हूँ, कुछ है जो कहने को बैठा हूँ तो कह नहीं पा रहा हूँ । कई बार जिंदगी में कुछ चाहा है इतनी शिद्दत से, इतनी चाहत से। कई बार छु कर निकल गए हैं वोह पल जिन्हें हम पाने की चाह रखते थे। कई बार ऐसे तपाक से कहना की बस अगला अवाक रह जाए। यह भी नहीं होता अब मुझसे, बहुत सोच के, बहुत परेशान हो के, बहुत संकोच के साथ कहता हूँ आजकल। पहला वाला पागलपन नहीं है और वोह महसूस करने का जज्बा भी शायद नहीं बचा ।
तुम न हँसे हो, जग तो हँसे है,
तुम जो हंसो तो जुलुम होए जाए है
आज बहुत तपाक से याद आए तुम। अच्छा लगा जो कभी किसी ने ख़ुद कहा। शायद पहले मैं सुन ही नहीं पाटा था अपनी जिंदगी की उधेड़ बुन में । और अब बस कोई ऐसे ही कुछ कह देता है तो अच्छा लगता है। तपाक से।
इस हफ्ते कुछ अजीब सा रहा कुछ याद आना। एक सिरहन सी दौड़ गयी बदन अपनी एक ख्वाहिश को सोच कर कि क्या मैं यह सोच के कभी चला था की इस मोड़ पे मुलाक़ात होगी अपने से ऐसे ही, कुछ बदहवास से, बेहिस से। पता नहीं सच में नहीं पता।
और बस सब अमेरिका निकल लिए हैं। कुछ तो होगा वहाँ जो इतने लोग निकल रहे हैं, इतनी तादाद में, इतने जज्बे के साथ। कोई लौटा नहीं, कोई याद भी नहीं आता अब तो। खुदा सच में कुछ तो ऐसा होगा वहाँ तो इतने अपने खो गए हैं इतने मसरूफ हैं के बस पूछो ना, शायद रामधुन में ही इतनी बेफिक्री ना मिलेगी मुझे।
आज बहुत दिन बाद ऐसे ही लेते देख रहा था और समुन्दर बहुत नज़दीक प्रतीत हुआ। लेकिन कोई आवाज़ नहीं, कोई लहरों की आवाज़ नहीं बुलाती सुन पड़ रही है। यह शायद अच्छा ही है क्यूंकि बस अब अपनी तलाश में अपनेपन की तलाश में अपने को ढूँढने को चलने तैयार हूँ मैं। कुछ और तैयारी, कुछ और रह ना जाए की उलझन में काफ़ी कुछ शायद रह गया या चला गया। शायद सिर्फ़ ख़ुद को लाये थे और सिर्फ़ ख़ुद को ले जाना चाहिए यहाँ से। येही शायद यहाँ से सबक होगा। लेकिन ठीक है आजकल मजाज़ लखनवी और बशीर बद्र में काफ़ी मज़ा आ रहा है। ;) ।
कल रात काफ़ी पढ़ाई की और लगा की एक बार और भी पढ़ लूँगा तो थोडा और ही समझ आएगा, पूरा तो कभी नहीं तो बस आज आगे पढ़ा और लगा ठीक ही किया। कौन जाने आगे क्या हो, कौन आवाज़ दे रहा हो।
तुम न हँसे हो, जग तो हँसे है,
तुम जो हंसो तो जुलुम होए जाए है
आज बहुत तपाक से याद आए तुम। अच्छा लगा जो कभी किसी ने ख़ुद कहा। शायद पहले मैं सुन ही नहीं पाटा था अपनी जिंदगी की उधेड़ बुन में । और अब बस कोई ऐसे ही कुछ कह देता है तो अच्छा लगता है। तपाक से।
इस हफ्ते कुछ अजीब सा रहा कुछ याद आना। एक सिरहन सी दौड़ गयी बदन अपनी एक ख्वाहिश को सोच कर कि क्या मैं यह सोच के कभी चला था की इस मोड़ पे मुलाक़ात होगी अपने से ऐसे ही, कुछ बदहवास से, बेहिस से। पता नहीं सच में नहीं पता।
और बस सब अमेरिका निकल लिए हैं। कुछ तो होगा वहाँ जो इतने लोग निकल रहे हैं, इतनी तादाद में, इतने जज्बे के साथ। कोई लौटा नहीं, कोई याद भी नहीं आता अब तो। खुदा सच में कुछ तो ऐसा होगा वहाँ तो इतने अपने खो गए हैं इतने मसरूफ हैं के बस पूछो ना, शायद रामधुन में ही इतनी बेफिक्री ना मिलेगी मुझे।
आज बहुत दिन बाद ऐसे ही लेते देख रहा था और समुन्दर बहुत नज़दीक प्रतीत हुआ। लेकिन कोई आवाज़ नहीं, कोई लहरों की आवाज़ नहीं बुलाती सुन पड़ रही है। यह शायद अच्छा ही है क्यूंकि बस अब अपनी तलाश में अपनेपन की तलाश में अपने को ढूँढने को चलने तैयार हूँ मैं। कुछ और तैयारी, कुछ और रह ना जाए की उलझन में काफ़ी कुछ शायद रह गया या चला गया। शायद सिर्फ़ ख़ुद को लाये थे और सिर्फ़ ख़ुद को ले जाना चाहिए यहाँ से। येही शायद यहाँ से सबक होगा। लेकिन ठीक है आजकल मजाज़ लखनवी और बशीर बद्र में काफ़ी मज़ा आ रहा है। ;) ।
कल रात काफ़ी पढ़ाई की और लगा की एक बार और भी पढ़ लूँगा तो थोडा और ही समझ आएगा, पूरा तो कभी नहीं तो बस आज आगे पढ़ा और लगा ठीक ही किया। कौन जाने आगे क्या हो, कौन आवाज़ दे रहा हो।
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